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श्रीमद्भागवद्गीता में जो कर्म फल की इच्छा बिना कर्म के लिए कहा गया है
वही प्रेम के बिषय में भी सार्थक है .
प्रेम केवल देने के लिए होता है पाने की इच्छा किये बिना !
जब ऐसा प्रेम दिया जाना संभव हो जाता है
तो
प्रेमसलिला का उद्गम होता है .
फिर प्रेम का सागर भी बनता है
.जब प्रेम सागर का रूप ले लेता है तो प्रेम सागर में
वही प्रेम के बिषय में भी सार्थक है .
प्रेम केवल देने के लिए होता है पाने की इच्छा किये बिना !
जब ऐसा प्रेम दिया जाना संभव हो जाता है
तो
प्रेमसलिला का उद्गम होता है .
फिर प्रेम का सागर भी बनता है
.जब प्रेम सागर का रूप ले लेता है तो प्रेम सागर में