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रविवार, 24 नवंबर 2013

एक खुली चिट्ठी अन्ना जी, किरण जी के नाम....

स्वागत् है आपका SwaSaSan पर एवम् अपेक्षित हैं समालोचना/आलोचना के चन्द शब्द...


 

 

आदरणीय अन्नाजी,

सादर प्रणाम!

 सार्वजनिक मंच पर खुला पत्र लिखने हेतु अग्रिम क्षमा प्रार्थना!

(वैसे भी आपके और आपको प्रेषित पत्र आगे जाकर सार्वजनिक होते हैं)

अरविंद जी से आपकी नाराजी क्या वास्तव में केवल हिसाब किताब की ही है?

 यदि हाँ और आपके पास कोई ठोस प्रमाण हों तो

कृपया शीघ्रातिशीघ्र सार्वजनिक करवाइयेगा ताकि

हमारी भोली-भाली जनता अरविंद जी के बहकावे में आकर

अपना अहित ना करा बैठे

अन्यथा कम से कम इस समय,

जब उनको उनकी सम्पूर्ण ऊर्जा की आवश्यकता दूसरे मोर्चे पर है!

ऐसे समय में कट्टर दुश्मन के अतिरिक्त और किसी से भी

नया विवाद उठाना नैतिकता के विरुद्ध है!

(और शायद भाई अरविंद अब तक तो आपके दुश्मन नहीं ही हैं....)

किन्तु अन्नाजी ऐसा लगता नहीं

कि आपकी मूल नाराजगी हिसाब संबंधी है....

वरन् आपकी राजनीति से दूरी की विचारधारा के

के पालन ना कर पाने और अपने पूर्व सहयोगियों से ना करा पाने

के कारण आप अधिक नाराज लगते हैं?

आप और किरणजी दोनों राजनीति को अस्पृश्य मानते हैं!!!

आपमें इस भावना के बलवान होने का कारण भी समझ आता है

कि

आपका समर्पण महात्मा गाँधी एवम् उनके हत्यारों की

दोनों ही संस्थाओं से रहा है;

दोनों  राजनीति से तथाकथित दूर!

किन्तु दोनों ही मुख्य एवम् कुशल (नेपथ्य) संचालक !

दोनों ही उच्च आदर्शों के वाहक

दोनों का ही निषेध राजनीतिक पद से

पद से होने हो सकने वाले लाभ से!

उनके लिए राजनीति दूषित हो त्याज्य नहीं

वरन् उपभोग बिना दोष निवारण योग्य!

यही महात्मा गाँधी एवम् ऱा. स्व. सन्. दोनों के प्रयास!!!

यही आचार्य चाणक्य का भी उद्देश्य था!

यदि राजनीति स्वतः निकृष्ट होती

तो इतिहास के सभी राजनीतिज्ञ निकृष्टतम ही माने जाते!!!

हम आज

इंद्र, राम, कृष्ण, भीष्म, गौतम, महावीर, नानक, गोविंद आदि

को आदर्श मान ना पूज रहे होते!!!

रही बात अरविंद जी की सक्रिय राजनीति में उतरने की

तो

अन्नाजी; किरणजी आपके अतिरिक्त भी

समस्त राजनीति परित्यक्त जनों से भी

सादर प्रश्न है कि

भारतीय राजनीतिक सरोवर की देखभाल

के अब तक के ठेकेदारों में से प्रत्येक ने

ठेका लेते समय जिन शर्तों के वादों पर हस्ताक्षर किए,

उनके पालन से सरोकार ही ना रखा...

हर ठेकेदार केवल स्वयम् की अगली पीढ़ियों तक के लिये जोड़ने की

हेराफेरी में लगा रहा....

65 साल बीत चुके हैं आजमाते हुये...

और कितने ठेकेदारों को आजमायें???

शायद अब वह समय आ पहुँचा है जब

यदि

हम उन पूर्व राजनीतिक ठेकेदारों से

नीति कुशल नहीं भी हैं तो भी

हमारे पास

उस पवित्र सरोवर की देखरेख के

अधिकार पाने की गला काट प्रतिस्पर्धा में

स्वयं को  और स्वजनों को

झोंकने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं!

यह जानते हुए कि आज

यह प्रतिस्पर्धा समर का रूप ले चुकी है....

इसमें उतरकर हम

आहत भी हो सकते हैं और हत् भी,

लांछित भी और लांछन सिद्ध भी,

आरोपी भी और अपराधी प्रमाणित भी!!!

इस सामरिक प्रतिस्पर्धा में

कभी राम का तो कभी कृष्ण का

कभी चाणक्य का कभी गौतम का

कभी गाँधी का कभी भगत सिंह का

मार्ग अनुसरण करना ही होगा!

परिणाम की चिंता किये बिना!

-चर्चित चित्रांश-


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