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जीवन
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एक अनिवार्य यात्रा
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चलना ही नियति सबकी
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पथ चुनाव
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सीमित विकल्प
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प्रगत पथ पर्वतीय
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आरोह ही ध्येय मुख्य
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हर शिखर केवल विराम
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लक्ष्य वह सर्वोच्च शिखर
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अस्तित्व जिसका स्वयं शोध्य
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आरोहण बस आरोहण
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अनथक
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अनंतिम लक्ष्य की ओर
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अविराम निरंतर अग्रसर
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अग्रसर बस अग्रसर
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एकल विकल्प अग्रसर
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........नादाँ थे हम.........
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कुछ अजीबोग़रीब सी जिंदगी जी हमने
हर किसी से उम्मीद-ए-वफ़ा की हमने
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वो जिन्हें शऊर नहीं आदाब-ए-महफ़िल का
दाबत-ए-बज़्म उन नामाकूलों को दी हमने
.
सूखे दरख्तों के फिर पत्ते हरे नहीं होते
आरज़ू -ए-गुल क्यों बेवजह ही की हमने
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वतन परस्ती से नहीं दूर तक नाता जिनका
कमान-ए-वतन उन्हें ही खुद ही दी हमने
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हर किसी से उम्मीद-ए-वफ़ा की हमने
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वो जिन्हें शऊर नहीं आदाब-ए-महफ़िल का
दाबत-ए-बज़्म उन नामाकूलों को दी हमने
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सूखे दरख्तों के फिर पत्ते हरे नहीं होते
आरज़ू -ए-गुल क्यों बेवजह ही की हमने
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वतन परस्ती से नहीं दूर तक नाता जिनका
कमान-ए-वतन उन्हें ही खुद ही दी हमने
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फिरकापरस्ती है शौक-ओ-शगल जिनका
दरख्वास्त-ए-अमन खुद उनसे ही थी की हमने
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क़ाबिज किये हर साख पे खुद उल्लू उनने
निगरानी-ए-चमन जिन्हें कभी थी दी हमने
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अब हक-ए-फ़रियाद से भी शर्मिन्दा उनसे
गफलत में हुक्मरानी जिन्हें खुद थी दी हमने
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ऐ आतंकवाद...
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ऐ मेरे देश में घुस आये आतंकवाद
तुम चले जाओ
मेरा देश छोड़कर
भ्रम है तुम्हारा
कि सफल हो जाओगे
इसे टुकड़ों में तोड़कर
तोप! गोले! राकेट! गोली से
क्या ले जाओगे
बस दे पाओगे
मांस के लोथड़े ! तड़पते शरीर ! चंद लाशें !
तोड़ पाओगे मकान स्मारक और पुल
किन्तु ना जीत पाओगे कभी
मानवता से
भाईचारे से
देर सबेर
तुम्हारा भी हश्र
होना है वही
जो इतिहास में हर आतंक का
होता आया है
अंतिम चीख
अंतिम लाश
तुम्हारी रही है
तुम्हारी ही रहेगी
भ्रम में मत रहो
हमारे होंसलों से टकराओगे
तो मिट्टी में मिल
मिटटी हो जाओगे
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अभागा शिल्पकार
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मैं
एक शिल्पकार
वर्षों से कर रहा हूँ
सिलाओं पर शिल्पकारी
कहते हैं लोग
मेरे शिल्प में जादू है
मेरे शिल्प से निखर
स्वरुप पाते हैं पत्थर
बेडौल पत्थर
मेरा स्पर्श पाकर
जीवंत हो उठते हैं
मूक होते हैं
मगर
मुझसे स्वर पाकर
पूछते हैं मुझी से
मैंने क्यों छुआ उन्हें ?
क्यों दिया स्वरुप ?
क्यों स्वर देकर किया जीवंत ?
क्यों सौंपा दिया है उन्हें
निर्दयी समाज के हाथों ?
क्यों छीना है उनसे
उनका 'अलौकिक आनंद ' ?
उनके इन प्रश्नों से
हो जाता हूँ मैं
निरुत्तर
मौन
शायद मूक
निर्जीव सा
पत्थर होता जा रहा हूँ मैं
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मकान और घर
कूलर ए सी का आनंद लेते हुए
भूल चुके हैं हम
कमरे की खिड़की से आती
वो मीठी बयार
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रूम स्प्रे की गंध भरे नथुनों में
भूल चुके हैं
आँगन की बगिया से उठती
वो भीनी -भीनी गंध
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बस स्टाप के शेड तले
ताकते एक दुसरे की सूरत
भुला बैठे हैं हम
वो बूढ़े बरगद की
शीतल छाँव
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पानी पाउच ने भुलाया
पनिहारिन से मनुहारकर
बुझाना अपनी प्यास
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कृत्रिमता की दौड़ में
हम इतने कृत्रिम हुए जा रहे हैं
कि
ईंट गारे से बने मकान को
घर कहे जा रहे हैं
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इसीलिये घर नहीं बस पा रहे हैं
एक ही चारदीवारी में बंद परिजन
एक दूजे को
अजनबी पा रहे हैं
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केक्टस उग आया है
हम दोनों
हमारा छोटा सा घर
घर के आँगन में बगिया
बगिया में खिलते फूल
हमारा छोटा सा घर
घर के आँगन में बगिया
बगिया में खिलते फूल
हमें प्यार था
फूलों से
फूलों की खुशबू से
फूलों की मुस्कान से
जान छिड़कते थे हम
हमारी बगिया पर
हमारी शान थी बगिया
हमारी जान थी बगिया
फूलों से
फूलों की खुशबू से
फूलों की मुस्कान से
जान छिड़कते थे हम
हमारी बगिया पर
हमारी शान थी बगिया
हमारी जान थी बगिया
मगर ना जाने कब -कैसे
एक केक्टस उग आया
हमारी बगिया में
एक केक्टस उग आया
हमारी बगिया में
शुरू में वह
खटकता रहा हम दोनों को
फिर धीरे धीरे
हमारा अप्रतिरोध/ प्रोत्साहन पाकर
खटकता रहा हम दोनों को
फिर धीरे धीरे
हमारा अप्रतिरोध/ प्रोत्साहन पाकर
केक्टस बढता रहा
क्यारी के एक कोने से
पूरी क्यारी में
फिर पूरी बगिया में
अब
ना तो फूल हैं
ना खुशबू
ना ही मुस्कान
बस
मैं हूँ
वह है
मेरा / उसका घर है
और बगिया है
जिसमें
केक्टस उग आया है
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क्यारी के एक कोने से
पूरी क्यारी में
फिर पूरी बगिया में
अब
ना तो फूल हैं
ना खुशबू
ना ही मुस्कान
बस
मैं हूँ
वह है
मेरा / उसका घर है
और बगिया है
जिसमें
केक्टस उग आया है
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