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रविवार, 30 जनवरी 2011

एक चिट्ठी राहुल गाँधी के नाम

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राहुलजी धन्यवाद् ! .... भ्रष्टाचार पर बोलने के लिए ! 
आप और आपके पिता स्व. श्री राजीव जी भ्रष्टाचार को स्वीकारने वाले पहले राजनेता हैं . बड़े साहस की बात है . स्व राजीव जी ने स्वीकारा था कि केंद्रीय योजना के  एक रुपये में से ८५ पैसे भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है . आज भी स्थिति सुधरने के स्थान पर बदतर हुई है . प्रश्न यह है कि उक्त सार्वजानिक कथन को कहे दशक बीत चुका है यानी बीमारी का पता लगे तो सालों हो गए किन्तु अभी भी इलाज शुरू करने का विचार ही किया जा रहा है . यदि प्रथम बिंदु से चलने वाला १ रु  दसबें बिंदु तक १५ पैसे बचता है तो निश्चय ही १ले  से २रे या २रे से ३रे
बिंदु पर भी भ्रष्टाचार हो रहा है . क्या इतनी मोटी सी बात  उपरी स्तर पर दिखाई नहीं देती . इस सम्बन्ध में
आज तक कोई  राजनेता कुछ नहीं कर पाया जो शुरुआत करने जा रहे थे उन्हें रास्ते से हटा दिया गया .
राहुल जी, इतिहास गवाह है आज  तक राजनेताओं पर झूठे सच्चे अनेकों भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहे हैं. कइओं के प्रकरण कोर्ट में गए किन्तु सजा किसी को नहीं दी जा सकी . क्यों ? शायद कमजोर व स्वार्थपूर्ण नेतृत्व जो अपने अगले सहयोगी की सौ गलतियाँ मात्र सरकार चलाते रखने के उद्देश्य से अनदेखा करता रहता है. प्रजातंत्र का सबसे काला पहलू भी यही है . ऊपर से नीचे तक बहुमत सभी को चाहिए होता है फिर अपने सहयोगी / कार्यकर्त्ता को ईमानदारी का पाठ पढ़ाकर कौन बेबकूफ नेता  अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना चाहेगा .
तो कोई हल नहीं है क्या ?
हर समस्या का हल हमेशा आसपास ही मौजूद रहता है . जरुरत होती है दृढ़ इच्छाशक्ति की ! 
यदि वास्तव में भ्रष्टाचार कम करना है {मिटाने की सोचना  मुर्खता होगी } तो कदम १ रु के ९९ पैसे होने वाले  २रे ३रे स्तर पर उठाने ही होंगे क्योंकि वहां भ्रष्ट गिनती में कम रहते हैं जैसे जैसे नीचे उतारते जाएंगे भ्रष्टों की संख्या बढती जायेगी और कार्यवाही करनी  कठिन होती जाएगी . वैसे भी हर उपलब्धि /अनुपलब्धि का श्रेय  मुखिया को ही जाता है . हर स्तर पर मुखिया को सुधारिए तंत्र सुधर जाएगा  ! {प्रबंधन का साधारण सा सूत्र है }.
कैसे ? थोड़ी सी राजनीती वहां भी अपनाइए . 
 हर जागरूक व्यक्ति को जानकारी है आपको भी होगी की संसद का चुनाव लड़ने वाला सामान्यतःपार्टी अदि के अतिरिक्त अपने स्वयं के  २ से ५ करोढ रु चुनाव में खर्चता है जबकि ५ सालों के वेतन भत्तों का सकल योग भी इतना नहीं होता फिर क्या कारण है इन जनसेवकों के इस "बलिदान " का . केवल जनसेवा का जूनून या जनसेवा की आड़ में मेवा ?
शायद आपकी जागरूकता इस जानकारी तक ना हो की कुछ परिवहन अधिकारी जैसे छोटे 'लाभ' के पदों को पर नियुक्ति पाने अथवा बने रहने सामान्यतः चढ़ावा प्रतिवर्ष मंत्रीजी तक पंहुचाना होता है .पुलिस विभाग में छोटे पद पर इमानदार कर्मी अधिकतर लाइन अटैच और बड़ा हर ८ -१० माह में स्थानांतरित होता रहता है .  समय पर उचित चढ़ावा ना पहुंचाए  जाने पर परिवहन अधिकारी को सजा सहित / रहित हटना होता है . यह केवल उदहारण है जो दर्शाता है कि 'जनसेवक' क्यों चुनाव में जी जान लगाते हैं और जन सामान्य क्यों भ्रष्टाचार के आगे नतमस्तक  . यही हाल लगभग हर सरकारी विभाग का है . किससे भ्रष्टाचार के खिलाफ एकजुट होने की बात कर रहे हैं राहुलजी ?
इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि हर स्तर पर भ्रष्ट ही नेता हैं . सच तो यह है कि नेहरूजी से लेकर मनमोहनजी तक सर्वोच्च पद की सोभा बनने वाले तत्कालीन  सर्वाधिक स्वच्छ व्यव्हार वाले नेता रहे हैं. किन्तु अपनी नाक के नीचे हो रहे भ्रष्टाचरण पर नजर डालने या देखकर भी चाहकर भी कुछ कर पाने में सभी अक्षम भी रहे . ऐसा नहीं है कि प्रयास नहीं हुए या नहीं हो रहे किन्तु जिस गति से जिस प्रकार के सुधार लागू करने के प्रयास हो रहे हैं वे नगण्य सा ही अंतर अगले कुछ दशकों में ला पाएँगे . जरुरत है गतिशीलता , निरंतरता और दृढ़ता की.
जहाँ तक जनसाधारण का प्रश्न है तो उसे तो बस दंड और पारितोषिक ही समझ आता है इसीलिये वह साधारण भी  है . इसी जनसामान्य में से चंद मेरे जैसे  स्वयंभू आदर्शवादी सिर्फ अपनी आत्मशांति के लिए ईमानदारी ओढ़कर रखते हैं तो इनाम में मुझ जैसी भुखमरी में ही जी रहे होते हैं . यदि जनसाधारण को इमानदार बने रहने की कदम कदम पर सजा मिलती रहे तो पहले उसे सजा भोगते हुए इमानदार बने रहने  या बनने की सलाह देना  उचित है या उन सुविधाभोगियों को सुधारना जरुरी जो अपने मातहतों को भ्रष्ट बनने विवश करते हैं ?यह निर्णय आप ही कीजिये राहुल जी !!!
यदि केवल वक्तव्य देकर जनता का ध्यान खींचना आपका उद्देश्य था तो बात और है अन्यथा ऐसे वक्तव्य सार्वजानिक रूप से देने के स्थान पर अपने केबिनेट के सामने दिया होता तो ज्यादह अच्छा होता !!!



 

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