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मंगलवार, 22 दिसंबर 2015

काम हम भी आये थे!

स्वागत् है आपका SwaSaSan पर एवम् ....
साँस दर साँस
लम्हा दर लम्हा
दो जिस्म एक जान
की तरह जीते-जीते 
एक दिन अहसास हुआ
भ्रम है यह!
जिस्मों की ही तरह
जानें ही अलग ना थीं
जुदा तेरे ख्वाब भी थे !
 फिर भी हमारी लाचारी 
अपनी उम्र सारी
तेरे ख्वाबों की ताबीर हम तराशा किये!
तेरे हर सुनहरे ख्वाब में,
खुद का पैबंद
यहां वहां जोड़कर लगाने की
 हिमाकत हम करते रहे....
आखिर हमें मालूम हुआ ...
पैबंद लगा लिबास पहन
कोई दुल्हन विदा नहीं होती...
खुशबूदार-खूबसूरत-खुशगवार कितने हों फूल
सजने-सजाने के बाद
मसले जाना ही होता है हश्र उनका ....
वो जो सेज पर ना बिछ पाते तो
बाकी रातें तक फीकी होतीं 
खुद सेज बनाये जाने के फिर भी 
काबिल तो होते नहीं!!!
हम मसलकर फूल बनकर भी
हैं हर्षू आज तक 
कभी किसी ख्वाब में तेरे
..... अपेक्षित हैं समालोचना / आलोचना के चन्द शब्द...

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