फ़ॉलोअर

शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

भुला बैठा तेरी सूरत

.....................................................................................................................................................................
swasasan team always welcomes your feedback. please do.
.....................................................................................................................................................................
भुला बैठा तेरी सूरत
..............................................................
बड़ा रोमांचक क्षण था जब ३० बर्षों के लम्बे अंतराल के बाद एक बार फिर उससे सामना हो रहा था .
मेरे पास कोई प्रश्न नहीं था .
बस उसकी खुशहाली जानना थी -उसे देखना था .
सो उसकी कोठी के मेन गेट को देखकर ही उसके वैभव का अंदाज हो गया था .
बची खुची कसर ड्राइंग रूम की साजसज्जा देख पूरी हो गई थी .

हलाकि वो खुद एक प्रोफेशनल अर्चिटेक्ट थी सो थोड़ी बहुत सम्पन्नता तो संभावित थी ही ,
किन्तु उसे इतना संपन्न पाकर में ख़ुशी से ज्यादह शर्मिंदगी महसूस कर रहा था .
मेरा उसका कोई मेल ना तो ३० साल पहले था ना आज.
हंसी आ रही थी अपने एकतरफा प्रेम पर


फिर अपने आप को सांत्वना देने खुद से कहा
वो 'उस तरह' साथ होती तो शायद मैं और भी अधिक संपन्न होता .
उसके वैभव पूर्ण रहन सहन को देख मैं लज्जित के
साथ साथ थोड़ी जलन का भी अनुभव कर रहा था
इन विचारों में खोया था कि एक अनजानी आवाज आई
" हेलो मिस्टर सूरी मैं चंदेल ."
मैंने उठकर गर्मजोशी से हाथ मिलाना चाहा.शायद ऐसा किया भी
" सारी एक क्लायंट के प्रोजेक्ट डिजाइन अभी डिस्कस करने जरुरी थे ...
इसलिए मैडम १० मिनट और लेंगी .तब तक कुछ ..
.कुछ चाय वाय लीजिए ..... " "काका ..."
"जी....'मैडम' को आ जाने दीजिए साथ ही ले लेंगे " मैंने जैसे तैसे कहा .
चंदेल साहब को देखकर थोडा अस्वाभाविक अनुभव कर रहा था किन्तु उनकी
जिन्दादिली ने जल्द ही सहज होने में मेरी मदद की.
थोड़ी देर यूँ ही राजनीती और यू पी की आती जाती बिजली पर चर्चा होती रही तभी

वो आ गई
"कैसे हो सूरी ...तुम तो जरा भी नहीं बदले बस थोडा सा वेट गेन कर लिया है "
मैंने उसे ऊपर से नीचे तक देखा "लेकिन तुम तो बहुत बदल गई हो ...बस वेट गेन नहीं किया ...{ही ..ही..ही..}"
"नहीं मुझे नहीं लगता कि में ज्यादा चेंज हुई हूँ....क्या पहचान नहीं पाते "
"हाँ ,अगर घर से बहार मिलता तो नहीं पहचान पाता." मैने एक गहरी साँस लेते हुए
बेबक्त अर्थपूर्ण मुस्कराहट के साथ मन कि बात कह दी.
इतना सुनते ही उसका मूड आफ हो गया.

मैं लाख चाहकर भी चेहरा याद ना रख पाने का कारण उन सबके सामने नहीं बता सकता था.
बात को बहुत सम्हालने की कोशिश की किन्तु ३० साल पहले की तरह
एक बार फिर चुप रहकर निरपराध दंड का भागी बना .
कुछ फार्मल बातों और चाय नाश्ते के बाद अनचाही विदा लेनी पडी .
सोचा अगली मुलाकात में कोई कविता सुनाने के बहाने बता दूंगा कि
क्यों याद नहीं रहा उसका चेहरा ....

३० साल पहले का वो दिन जब मैं अपनी सफाई देने उसके पास उसके हॉस्टल गया था
और उसने मुझसे आगे से मिलने से मना कर दिया था.
उसने साफ़ कर दिया था कि उसने मुझे कभी उस तरह नहीं देखा जिस तरह
मैं उसके लिए सोचता था .

वैसे भी मेरी सोच प्रेक्टिकल नहीं थी .
उसने कह दिया और मैंने मान लिया .

उसकी ससुराल की खबर भी तब लगी जब उसके दोनों बच्चे प्राइमरी पास कर चुके थे.
आखिरी बार वहीँ हॉस्टल के मेन पर देखा था उसे .मगर वो सूरत याद रखने वाली तो नहीं थी .
याद रखने वाली सूरत जो याद थी वो हाई स्कूल की स्टुडेंट की थी .
एक छात्रा और एक महिला का व्यक्तित्व बड़ा भिन्न होता है
शुरुआत के सालों में उससे मिलता जुलता कोई चेहरा दिख जाता तो घाव भी ताजा होते और मीठी यादें भी तजा होतीं .
फिर मेरी शादी के बाद पत्नी का सबसे बड़ा प्रश्न यही होता था कि

"कैसी दिखती थी वो "
और में हर किसी चेहरे में तलाश कर कुछ भी उससे मिलता जुलता होता तो बताता था कि
ऐसी आँखें थी... ऐसे बाल थे ... ऐसी मुस्कान थी ...
फिर हर चेहरे से उसके चेहरे को मिलाने की कोशिश चलती रही .
किसी किसी में कुछ ज्यादह समानताएं दिखती तो में बताता
ऐसी दिखती थी वो बस बाल घुंघराले नहीं थे ....
कभी बस हाईट थोड़ी ज्यादा थी ...

...बस गाल थोड़े भरे भरे थे ....
सालों तक मेरी पत्नी ने ही कई लड़कियों को इंगित कर पूछा
ऐसी ही होगी वो ना ?
आखिर उसका चेहरा हर चेहरे से मिलते मिलाते और ३० साल गुजरते गुजरते
उसका अपना चेहरा जाने कितने चेहरों में

थोडा थोडा पैबस्त हो बिखर चुका था.
अब उसका नहीं उसके जैसे चेहरे ही ताजा थे .
हर भीड़ भरी जगह पर सालों का हिसाब लगा
उस उम्र की उस जैसी महिला को देखता तो
पूछने का मन होता
कईयों से पूछा भी
मगर
पूछने से पहले उस महिला के चेहरे से उसके चेहरे के मिलने का
अपने आप को विस्वास दिलाना होता था.
पहली बार गलत निकला
पहली बार उसका थोडा सा चेहरा उस महिला के चेहरे में रह गया और
कुछ उस महिला का चेहरा उसके चेहरे में शामिल हो गया
कई बार यही होता रहा
असली चेहरा खोता रहा
उसने कुछ इस तरह दूर किया था खुद से मुझे
कि इन ३० सालों में एक भी बार सपनों में आकर तक ना मिलना चाहा .
उसके घर से bahar nikalte  हुए सोचता रहा अगली मुलाकात के बारे में ...
लेकिन अब
ना तो मिलने की चाह बची ना कुछ बताने की
ना उसे रास्ते में रोककर अपनी तमाम सफाई देने की
आखिर क्यों सफाई दूं ! क्यों सोचूं उसके लिए !
कौन है वो मेरी !
कौन हो सकती थी वो मेरी !
मैने तो कभी उसके साथ घर नहीं बसाना चाहा था !
बस एक नादान चाहत थी, सदा उसके आसपास रहने की !
सब कुछ वास्तविकता से कोशों दूर !
और
सोचते सोचते वह मेरे लिए उतनी ही अपरिचित हो गई है
जितना
पिछली रेल यात्रा का सहयात्री .
...................................................................................................................................................

कोई टिप्पणी नहीं:

Translate