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1- (कैसे )
हिंदी दिवस पर...
हिंदी की दुर्दशा के दोषी हम हिंदी भाषी स्वयं ही हैं !
जी हाँ ! मैं मेरे सिद्धांतों के विरुद्ध आज इस अवसर पर नकारात्मक कहने को विवश इसीलिये हूँ की आज के दिन शायद हिंदी में लिखा हुआ पढ़ने में हिंदी भाषियों को रूचि हो !
ये मेरा फलसफा नहीं कटु अनुभव बोल रहा है !
आपको प्रसंगवश बताना आवश्यक है की मेरे लिखे लेख ' मेरा राज देश पर तो देश का दुनियां पर ' के लिए मुझे ' राष्ट्रीय रत्तन अवार्ड -2009 ' हेतु ' सिटिज़न्स इंटीग्रेशन एंड पास सोसाइटी इंटर्नेशनल ' द्वारा आमांकित किया गया था . ( इस संस्था का मुख्यालय USA में है और लेख के अंश SwaSaSan पर ) . मैं अर्थाभाव -वश समय पर ना तो फोटोग्राफ आदि जानकारी भेज सका ना समारोह में सम्मिलित होने दिल्ली तक जा सका ! किन्तु इस नामांकन से प्रेरित हो मेरा ब्लॉग स्वशासन और बाद में वेबसाइट ( हिंदी ) शुरू की ! पिछले 16 ऑक्ट 2010 से आज तक मेरे ब्लॉग पर कुल लगभग 980 क्लिक हुए हैं ! मुझे मेरे ब्लॉग के इन आंकड़ों के विश्लेषण से आश्चर्य दुःख और घोर निराशा होती है ! इसीलिये नहीं की गिनती में कम हैं वरन इसलिए कि इनमें से आधे से अधिक विदेशों से हैं ! मुझे दुःख है कि कनाडा और USA की एक से अधिक वेबसाइट मेरा प्रचार कर प्रोत्साहन का प्रयास करती हैं ! सबसे ज्यादह USA में मुझे पढ़ा जाता है !
चलिए बात यहीं तक होती तो भी ठीक था किन्तु आगे जो लिखने जा रहा हूँ वह या तो मेरा दुर्भाग्य है या हमारे कुंठाग्रस्त समाज की विकृत बिडम्बना !
मई मार्केटिंग में राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित किया जा चूका हूँ तो निश्चय ही मेरा परिचय क्षेत्र विस्तृत होगा ही ! मेरे परिचय क्षेत्र के लगभग हर व्यक्ति से ( जो हिंदी और नेट की समझ रखते हों )
ब्लॉग पर जाकर पड़ने और उनकी समस्याओं के समाधान पाने का विश्वास दिलाया किन्तु .... करीब 3-3.5 हजार लोंगों में से किसी से भी या तो ब्लॉग पर जाना नहीं हो पाया या आधे से अधिक ने हिंदी ठीक से समझ ना आने की विवशता जताई !
मुझे लगा शायद हमारे देश में इन्टरनेट के प्रति जागरूकता की कमी है इसीलिये लोगों की रूचि कम है सोचकर मैने मेरे बहु-उपयोगी ढाई पेज के लेख ' सुख के साधन ' की 50 प्रतियाँ छापकर मेरे कार्यालयीन सहयोगियों और परिचितों में से केवल उन जरूरतमंदों को दी जिन्हें इसकी पढ़ने की सख्त जरूरत मुझे महसूस हुई ! पिछले 6 माह में से केवल 2 व्यक्तियों ने ही पढ़ना स्वीकार किया ( कहा हाँ यही सच है सुख हमारे अपने हाथ में है हमारे गुरूजी भी यही कहते हैं ) शेष 48 को ढाई पेज पढ़ने का समय नहीं मिल पाया ! और इनमें वे लोग भी शामिल हैं
हिंदी की दुर्दशा के दोषी हम हिंदी भाषी स्वयं ही हैं !
जी हाँ ! मैं मेरे सिद्धांतों के विरुद्ध आज इस अवसर पर नकारात्मक कहने को विवश इसीलिये हूँ की आज के दिन शायद हिंदी में लिखा हुआ पढ़ने में हिंदी भाषियों को रूचि हो !
ये मेरा फलसफा नहीं कटु अनुभव बोल रहा है !
आपको प्रसंगवश बताना आवश्यक है की मेरे लिखे लेख ' मेरा राज देश पर तो देश का दुनियां पर ' के लिए मुझे ' राष्ट्रीय रत्तन अवार्ड -2009 ' हेतु ' सिटिज़न्स इंटीग्रेशन एंड पास सोसाइटी इंटर्नेशनल ' द्वारा आमांकित किया गया था . ( इस संस्था का मुख्यालय USA में है और लेख के अंश SwaSaSan पर ) . मैं अर्थाभाव -वश समय पर ना तो फोटोग्राफ आदि जानकारी भेज सका ना समारोह में सम्मिलित होने दिल्ली तक जा सका ! किन्तु इस नामांकन से प्रेरित हो मेरा ब्लॉग स्वशासन और बाद में वेबसाइट ( हिंदी ) शुरू की ! पिछले 16 ऑक्ट 2010 से आज तक मेरे ब्लॉग पर कुल लगभग 980 क्लिक हुए हैं ! मुझे मेरे ब्लॉग के इन आंकड़ों के विश्लेषण से आश्चर्य दुःख और घोर निराशा होती है ! इसीलिये नहीं की गिनती में कम हैं वरन इसलिए कि इनमें से आधे से अधिक विदेशों से हैं ! मुझे दुःख है कि कनाडा और USA की एक से अधिक वेबसाइट मेरा प्रचार कर प्रोत्साहन का प्रयास करती हैं ! सबसे ज्यादह USA में मुझे पढ़ा जाता है !
चलिए बात यहीं तक होती तो भी ठीक था किन्तु आगे जो लिखने जा रहा हूँ वह या तो मेरा दुर्भाग्य है या हमारे कुंठाग्रस्त समाज की विकृत बिडम्बना !
मई मार्केटिंग में राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित किया जा चूका हूँ तो निश्चय ही मेरा परिचय क्षेत्र विस्तृत होगा ही ! मेरे परिचय क्षेत्र के लगभग हर व्यक्ति से ( जो हिंदी और नेट की समझ रखते हों )
ब्लॉग पर जाकर पड़ने और उनकी समस्याओं के समाधान पाने का विश्वास दिलाया किन्तु .... करीब 3-3.5 हजार लोंगों में से किसी से भी या तो ब्लॉग पर जाना नहीं हो पाया या आधे से अधिक ने हिंदी ठीक से समझ ना आने की विवशता जताई !
मुझे लगा शायद हमारे देश में इन्टरनेट के प्रति जागरूकता की कमी है इसीलिये लोगों की रूचि कम है सोचकर मैने मेरे बहु-उपयोगी ढाई पेज के लेख ' सुख के साधन ' की 50 प्रतियाँ छापकर मेरे कार्यालयीन सहयोगियों और परिचितों में से केवल उन जरूरतमंदों को दी जिन्हें इसकी पढ़ने की सख्त जरूरत मुझे महसूस हुई ! पिछले 6 माह में से केवल 2 व्यक्तियों ने ही पढ़ना स्वीकार किया ( कहा हाँ यही सच है सुख हमारे अपने हाथ में है हमारे गुरूजी भी यही कहते हैं ) शेष 48 को ढाई पेज पढ़ने का समय नहीं मिल पाया ! और इनमें वे लोग भी शामिल हैं
जो मार्गदर्शन लेने ही मेरे पास आये थे !
अधिकांश लोग अपने बच्चों की समस्या मेरे सामने रखते हुए सलाह के रूप में ( मुफ्त )ऑनलाइन ब्लॉग बच्चे को पढ़वाने की सलाह शुरू से नकारते हुए बहुत इतराते हुए कहते हैं -
" हिंदी में है ? हमारे बच्चे तो हिंदी के नाम से ही चिड जाते हैं !"
" शुरू से इंग्लिश मीडियम में ही पढ़े हैं ना ! "
" अब हिन्दी कौन पढ़ता है ? "
" बस अ आ इ ई तक ही सीख पाए फिर जरुरत ही नहीं पड़ी ! "
" जनरल हिंदी में पास होने लायक आ जाएँ "
" और कोई उपाय बताइए ... जो खर्च लगेगा हम कर लेंगे !"
यहीं से मेरा दिमाग घूम जाता है
[और मैं उनसे नम्रता से चले जाने को कह देता हूँ ! ]
मेरे कार्यालयीन नए सहयोगी उनहत्तर , उन्सठ, उनचास
में भ्रमित हों तो चल जाए किन्तु पेंतालिस की अंग्रेजी में
गिनती फार्टी फाइव भी उन्हें बताना पड़ती है !
तब अपने भारतीय
[ होते हुए जूता उतारकर ना मार पाने की मजबूरी के कारण ] होने पर सचमुच शर्म आती है !!!
[ मेरा तंत्र के विरुद्ध आक्रोश और अकेलापन
मुझे तीन तीन बार सड़कों पर ला चूका है !
किन्तु पछतावा नहीं है मुझे !
ईश्वर , समुन्दर की लहरों सा होंसला और ताकत बनाये रखे बस !]
मेरे आक्रोश पर भी आक्रोश आता है मुझे
मेरे आक्रोश पर भी आक्रोश आता है मुझे
क्योंकि जिनपर मेरा गुस्सा है,
क्या वे ही लोग जिम्मेदार हैं इस स्थिति के लिए ???
सोचता हूँ तो केवल 10 % दोष उनका पाता हूँ !
शेष 90 % तो वही तंत्र जिम्मेदार है !!!!!!!
(मित्रो; क्षमा करें ! कुछ आकस्मिक विवशता आ गई है अतः शेष अगले भाग में , अगले सप्ताह तक !)
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