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सोमवार, 10 अक्तूबर 2011

‘लिव इन ‘ ना बदलाव ना भटकाव्’- उपसंहार

‘लिव इन' ‘ ना बदलाव ना भटकाव्’- उपसंहार
मेरा स्वयं का भी परम्परागत अथवा प्रेम-विवाह अथवा किसी भी अन्य तरह के विवाह
जिनमें गन्धर्व विवाह भी सम्मिलित है किसी तरह का कोई विरोध नहीं है !
मेरे मत में सर्वाधिक उत्तम आर्यों का सप्तपदी विवाह ही है !
बशर्ते वर-वधु दोनों को अपने अपने सातों वचन याद हों
और वे इनपर चलने तत्पर हों !

वचनवद्ध हों !
किन्तु प्रचलित परम्परागत विवाह धीरे धीरे आधुनिकीकृत होते गए एवं
एवं होते जा रहे हैं !
परिवर्तन का उदहारण कुछ इस तरह है कि
मेरे दादाजी की पीढ़ी वाले समय में
वर - वधु एक दुसरे को ना तो देख पाते थे ना जीवन साथी के मायने समझ पाते थे !
शादियाँ बचपन में हुआ करती थीं !
शौक से माता पिता पुत्रवधू को युवा होने से पूर्व गौना करा भी लेते तो भी
दोनों को आपस में वार्तालाप या तो बचकाना होता था या
सबकी मोजूदगी में शर्मिला सा !
यह लगभग 100 वर्ष पुराना मेरे परिवार का सुना हुआ चलन था !
किन्तु मेरे गाँव वालों के परिवार में मैंने स्वयं अभी ही
मात्र 31 वर्ष पहले यही सब अपनी आँखों से देखा !
जिसमें वर और वधु शारीरिक मिलन हेतु तत्पर होने के
वर्षों पूर्व से ही अपने भावी साथी से विवाहित हो उसे जानते होते थे ,
समझने की उम्र होने पर उनके मन में कोई काल्पनिक स्वप्न संगी ना होकर
उनके अपने जीवन साथी का स्पष्ट व्यक्तित्व होता था !
तब किसी परपुरुष को और काफी हद तक पर स्त्री को भी
स्वप्न में भी ना सोचने वाला कथन सत्य के अधिक निकट था !

मेरे परिवार में यह मेरे पिता की पीढ़ी के विवाह के समय
वर और वधु के युवा होते होते होने विवाह होने और गौने की प्रथा ख़त्म होने के रूप में
लगभग 60 -70 वर्ष पूर्व हो गया था !
तब भी ठीक था जिस समय वर और वधु वरीच्छा की आयु में पंहुचते उनका साथी उनके सामने स्पष्ट होता था!
किन्तु मेरे गाँव में वह 70 वर्ष पीछे चलने का क्रम अभी भी बना हुआ है !
मेरे गाँव वालों के परिवार में अब भी वर वधु की युवावस्था की दहलीज पर पंहुचते-पंहुचते विवाह होना शुरू हुआ है !
मेरे पिता की पीढ़ी तक के शहरी, कस्बाई और गाँव के, आज के भी,
विवाहितों में चारित्रिक पतन, प्रेमविवाह ,सम्मान ह्त्या (आनर किलिंग ), विवाहेत्तर सम्बन्ध, पारिवारिक विघटन , मनमुटाव , दहेज़ , दिखावा और तलाक जैसी सामाजिक बुराइयां यदाकदा अभिजात्य वर्ग तक ही सीमित रहे हैं/ हैं !
किन्तु मेरी पीढ़ी और मेरे बाद की वर्तमान पीढ़ी के आते-आते
ये सभी बुराइयां चरम पर पंहुच चुकी हैं !
( मेरे ) गाँव में नगण्य हैं

किन्तु अन्यत्र
कन्या को जन्मने भी नहीं दिया जा रहा !
क्या समाज में व्याप्त ये सामाजिक बुराइयां जिम्मेदार नहीं हैं ?
कन्या भ्रूण ह्त्या की ?
मेरे समकालीन और वर्तमान यानी लगभग 30 -40 वर्ष के हालिया इतिहास में
परिस्थितियाँ तेजी से इन बुराइयों की ओर बदली हैं !
कारण वयःसंधि की आयु में सपनों के जीवन साथी की मात्र काल्पनिक छवि !
अथवा अपने आसपास उपलब्ध आदर्श व्यक्ति की ओर मन ही मन / मुखर आकर्षण !
ऐसे आकर्षण का पता माता-पिता को लगने से पूर्व ही अथवा लगते ही
अन्यत्र विवाह बंधन में बंधने की विवशता !
किन्तु पूर्वनिर्धारित काल्पनिक जीवनसाथी की छवि यथार्थ से जुड़ने में सदैव बाधक !
परिणाम - मनमुटाव , बिखराव ,विवाहेत्तर सम्बन्ध, अलगाव, हिंसा , ह्त्या और तलाक !
एक मनोवैज्ञानिक सर्वे के अनुसार प्रत्येक युवा व्यक्ति विवाह से पूर्व अवश्य ही
किसी ना किसी के रूप में अपना जीवन साथी संजो चुका होता है !
एक और सर्वे के अनुसार प्रथम प्रेम अविस्मर्णीय तो होता है किन्तु
इसका सर्वश्रेष्ठ होना / सर्वाधिक महत्वपूर्ण होना आवश्यक नहीं !
किन्तु यदि प्रथम प्रेम साथ हो और विशेष त्रुटी रहित भी हो तो
किसी अन्य बीज के अंकुरण की संभावना अशेष ही होती है !
ऊपर मेरे दादाजी और पिताजी के समय के विवाह पद्धतियों का वर्णन कर
पूर्व प्रचलित मिलन से पूर्व किन्तु विवाहोपरांत लिव-इन का भी उदाहरण दिया है ,
और वयःसंधि के समय के जीवन साथी की स्पष्ट प्रथम प्रेम की छवि का भी !
दहेज़ और आडम्बर रहित विवाह व्यवस्था होने के कारण
न्यून क्लेश की परिस्थितियों में विवाह संपन्न कर
जीवन पथ पर अग्रसर होते प्रथामान्कुरित प्रेम युक्त युगल की स्थिति का भी !
आज कहाँ है ऐसे हालात !
किस टाइम मशीन में बैठाकर वर वधु को
प्रथामान्कुरित प्रेम वाली वयः संधि आयु पर वापस ले जाया जा सकता है !
यदि यह संभव नहीं तो जिस तरह भी हो दोनों को एक दुसरे को
पूरे मन से वरण किया जाए महत्पूर्ण यह है,
ना की समाज की हमारी अपनी बनाई हुई पूर्व मान्यताएं
जिन्हें हम लम्बे विरोधों के बाद ही सही
कालान्तर में बदलने विवश होते रहे हैं ,,,,
और आगे भी होते रहेंगे ....!!!!!
जहाँ तक लिव-इन को मान्यता का प्रश्न है तो
विवाह के मजबूत होने का आधार कारण बन सके
भविष्य में जुड़ने की आकांक्षा सहित , यौन संपर्क रहित स्वस्थ सहवास तो स्वागत योग्य !
अन्यथा पूर्वकाल के गन्धर्व विवाह की तरह ही हेय !!!!!
राम की तरह एक पत्नीव्रती पुरुष
और सीता सावित्री कि तरह समर्पित स्त्री
सदैव आदरणीय रहे हैं
और युगों तक रहेंगे !
ना मुझे इस पर कोई संदेह है ,
ना मेरा कोई और सन्देश !
धन्यवाद !
जय हिंद !

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