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गुरुवार, 6 अक्तूबर 2011

'लिव इन ' ना बदलाव ना भटकाव्'

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'लिव इन ' ना बदलाव ना भटकाव्'
[(मूलतः जागरण जंक्शन पर  )
एक अच्छे बिषय को उठाने हेतु धन्यवाद् !
विषय एवं उठाये गए प्रश्न दोनों जटिल हैं .]
.
  लिव इन से पहले विवाह व्यवस्था पर विचार करना जरूरी है,
जिसके कारण लिव इव पर प्रश्न उठाने की आवश्यकता पड़ी!
ज्ञात प्रामाणिक इतिहास ,धार्मिक मान्यताओं और वैज्ञानिक तथ्यों से स्पष्ट है कि
विवाह व्यवस्था का प्रादुर्भाव बाद में हुआ है !
उससे पहले 'बाबा आदम और हब्बा' या 'एडम और ईव' या 'मनु स्मृति ' या किसी भी अन्य नाम वाले
पहले जोड़े के विवाह का कोई उल्लेख कहीं नहीं मिलता !
विज्ञान प्रामाणिक प्राचीनतम धर्म हिन्दुओं के मूल देवताओं में से भी
केवल शिव विवाह का ही प्रसंग वर्णित है !
बाद में वर्णित अवतारों में से भी केवल राम ने ही विवाह की मर्यादाओं को निभाया है !
यानी संक्षेप में विवाह व्यवस्था से पूर्व दीर्घकालिक , अल्पकालिक अथवा क्षणिक लिव इन ही प्रचलित था !
विकास वाद के सिद्धांत को उचित मानें तो
निश्चय ही लिव इन की त्रुटियाँ दूर करने के उद्देश्य के साथ ही
बाद में विकसित विवाह व्यवस्था अधिक अच्छी होनी चाहिए !
किन्तु जिस तरह लिव इन की त्रुटियों में किये गए सुधारों ने विवाह व्यवस्था को जन्मने
और यौन तुष्टि हेतु आदर्श व्यवस्था बनने का अवसर दिया
आगे होने वाले सुधारों और प्रचलनों ने इस आदर्श व्यवस्था में त्रुटियों को जन्म दिया !
विवाह व्यवस्था की आवश्यकता स्त्री को उपभोग की वस्तु से
समाज का अंग बनाने की आवश्यकता पड़ने पर हुई होगी !
श्री कृष्ण के युग तक आते आते स्त्री देवी से दासी की स्थिति में पहुँच चुकी थी !
स्त्री-पुरुष अनुपात जो भी रहा हो पति-पत्नी अनुपात अजीब हो चूका था !
श्रीकृष्ण की १६००८ पत्नियों की तुलना में द्रोपदी ५ पतियों की पत्नी ....!
ऐसी विसंगति के काल में में जनसाधारण में से अनेक पत्नी विहीन ही रहे होंगे !
स्त्रियाँ केवल सबल और संपन्न व्यक्ति के साहचर्य को ही वरीयता देती होंगी ,
बिना यह विचारे कि उसका क्रम/ स्थान कोनसा है !
तब सभी को उचित सहचर्य के उद्देश्य से विधिवत विवाह को मान्यता मिली होगी !
तब स्त्री को व्यक्ति होने का बहन हुआ होगा और व्यक्ति होने का अधिकार मिला होगा !
वैसे तो अभी अभी बीते इतिहास में और कहीं कहीं वर्तमान में भी
राजाओं से लेकर जनसाधारण द्वारा स्त्रियों को 'बेटियों ' के स्थान पर
सुन्दर वस्तु के रूप में दुसरे राजा अथवा व्यावसायी को निहित स्वार्थ ( तथाकथित विवशता )
हेतु सोंपने के अनेकों उदाहरण हैं किन्तु
सभ्य समाज में अधिकतर बेटी को उचित वर से व्याहने का पिता / परिजनों का
उत्साह देखते ही बनता है !
उचित वर मिलने पर पिता / परिजन अपने सामर्थ्यानुसार धूमधाम से
हार्दिक आशीषों के रूप में भर सामर्थ्य उपहारों से सजाकर अपनी बेटियों का विवाह करते रहे हैं !
किन्तु दोनों पक्षों उपहार देने वाले और पाने वाले दुसरे उदाहरणों से होड़ कर अपने लिए भी वैसे ही
उपहारों और धूमधाम की आशा और बाद में शर्तें रखने लगे !
यहाँ आकर विवाह व्यवस्था दूषित हो गई !
हर काल में हर बुराई के विरुद्ध अनेक क्रांतिकारी सामने आते रहे हैं !
ऐसा ही इस बुराई के सन्दर्भ में भी हुआ !
और कई प्रगतिवादी युवक-युवतियों ने एक दुसरे को बिना किसी ताम झाम के
एक दुसरे का जीवन साथी बनाना स्वीकारा !
किन्तु ऐसे विद्रोही युवक-युवती शेष बुराइयों के साथ साथ जातिगत भेदभाव की
बुराई के विरुद्ध भी कदम उठाने लगे !
जिसके परिणाम में समाज में तिरस्कार और मौत की सजा तक मिलने लगी !
जबकि विवाह रहित किसी भी अन्य रिश्ते की आड़ में (बहन-भाई से पवित्र रिश्ते तक ) साहचर्य में
किसी को कोई आपत्ति नहीं है !
दूसरे....
कई आदिवासी कबीलों में घोटुल जैसी प्रथा ....
कई महाराष्ट्रियन जातियों में वधु को विवाह पूर्व ससुराल भ्रमण कराने की प्रथा .....
आदि की ही तरह लिव इन में भी
आजीवन सामाजिक और कानूनी रूप से आसानी से ना तोड़े जा सकने वाले बंधन में बंधकर
सारा जीवन असंतुष्टि में गुजारने से बेहतर है कि एक दूसरे को जान लिया जाए !
यदि उचित लगे तो साथ साथ अन्यथा...
तुझे तुझसा और मुझे मुझसा कोई और मिलने कि दुआ के साथ अलग अलग ....
अंजलि गुप्ता जैसे जिन कटु उदाहरणों को हम देख रहे हैं
वे लिव इन के वास्तविक उद्देश्य से कहीं दूर
अनैतिक सहचर्य की इच्छित स्त्री का
कामोत्ताजना की दशा में पुरुष से लिए वचन को निभाने के दबाव
और असफलता की दशा में हताशापूर्ण उठए कदम का उदाहरण हैं !
इनका लिव इन से कोई सम्बन्ध नहीं है !
मैंने मेरे यौवनकाल से लेकर मेरे बेटे- बेटियों के यौवन काल तक
स्वस्थ लिव इन के सुपरिणाम अधिक देखे हैं !
दुष्परिणाम नगण्य !
इसीलिये मैं स्वस्थ लिव इन को सर्वथा उचित और प्रासंगिक मानता हूँ !
उपरोक्त में ही उठाये गए सभी प्रश्नों के उत्तर भी समाहित हैं !
1. क्या लिव इन संबंध में रहने वाले जोड़े विवाह संबंध में रहने वाले दंपत्ति के समान अधिकार पाने के हकदार हैं?
-नहीं !
२. क्या लिव इन संबंध भारतीय सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध है?
-नहीं !
3.यदि लिव इन संबंध को वैवाहिक संबंध के बराबर अधिकार मिल जाए तो क्या दोनों के बीच अंतर खत्म हो जाएगा?
-हाँ किन्तु ऐसा होना नहीं चाहिए !
४.लिव इन संबंधों को कानूनी वैधता दिए जाने के क्या लाभ है?
- कोई लाभ नहीं ! क्योंकि वयस्क स्त्री-पुरुष को बहला फुसलाकर कुछ भी करवाना असंभव है !
फिर साथ रहने विवश करने जैसा तो कुछ हो ही नहीं सकता !
दो वयस्कों का परीक्षण में साथ रहने का निर्णय साझा है तो
किसी एक का दूसरे को भविष्य में भी साथ देने विवश करना अन्याय ही होगा !
हाँ यदि इस बीच दोनों के संयोग से कोई संतान जन्मति है तो
भारतीय उत्तराधिकार कानूनों का संरक्षण मिलना चाहिए !

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