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सोमवार, 14 मई 2012

हिन्दू / मुस्लमान / सिख / इसाई /जैन / बौद्ध

SwaSaSan Welcomes You...

अस्वीकार का आधार -1

निवेदन है उन बुद्धिजीवी  कट्टर पंथियों से जो इन्सान को हिन्दू / मुस्लमान / सिख / इसाई /जैन / बौद्ध आदि धर्मं / जाती / क्षेत्र आदि समूहों के आधार पर स्वीकारते या नकारते हैं ... 

उन्हें विचारना चाहिए कि किसी व्यक्ति का किसी कुल में जन्मना उसके वश में नहीं होता ना ही बचपन में मिले कुलगत संस्कारों से मुक्त हो पाना सरल होता है किन्तु अभी तक की दुनियां के विशिष्ट विद्वानों 

और विनाशाकारियों की पृष्ठभूमि पर दृष्टिपात करने से स्पष्ट है कि 

ये अपने निर्माता स्वयं ही होते है फिर चाहे वो आमिर खान हों या अजमल कसाब  / जीजस हों या जूडा / राम हों या रावण / कृष्ण हों या कंस / विवेकानंद हों या वीरप्पन / या कोई भी और....

भारतीय ज्योतिष में मनुष्यों के गुण दोषों का सामान्य सूचक जन्म समय अनुसार अथवा प्रचलित नाम के प्रथमाक्षर अनुसार 12 राशियों में वर्गीकृत किया गया है ,

किन्तु ऊपर वर्णित  प्रत्येक विपरीत गुणधर्मी व्यक्तियों का जोड़ा  एक ही राशी से है !!!

यानी सामूहिक वर्गीकरण समूह के प्रत्येक व्यक्ति पर लागू नहीं हो सकता !!! 

 

गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी कहा है -

"कर्म प्रधान विश्व करी राखा , जो जस करहिं सो तस फल चाखा !"

 

मेरे मत में सच तो यह है कि 

" इस दुनियां में जन्मा हर व्यक्ति प्रतिदिन 

24 घंटों में कम से कम एक बार

 महर्षि बाल्मीकी के पूर्ववर्ती एवं पश्चवर्ती 

दोनों रूपों में अवश्य परिवर्तित होता है!!!

किन्तु किस रूप को स्वीकारना है किसे नकारना यह 

उस व्यक्ति के विवेक पर निर्भर है !!!"

अतः निवेदन है कि 

व्यक्तियों का आंकलन केवल उसके धर्म,  जाती, क्षेत्र, शिक्षा , सम्पन्नता , विपन्नता 

आदि के आधार पर ना कर उसके गुण दोषों के आधार पर करना ही उचित होगा !!!

    
 
 
 
 

शनिवार, 5 नवंबर 2011

शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2011

क्या हक़ है मुझे उपदेश देने का ???

swasasan team always welcomes your feedback. please do.
{ कुछ पाठक मेरे लेखों को पढ़ते हुए
मेरे सुझावों/ संदेशों को अव्यवहारिक मान सकते हैं ..
इसीलिये यह अग्रिम स्पष्टीकरण देना अपना कर्त्तव्य समझ प्रस्तुत कर रहा हूँ } -
निवेदन -
“उपदेशक के व्यक्तित्व से अधिक सन्देश की उपयोगिता को महत्त्व देना चाहिए ”
गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं -
पर उपदेश कुशल बहुतेरे …
हममें से अधिकांश
किसी उपदेश की प्रतिक्रिया में
गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा लिखित
उक्त पंक्तियाँ दोहरकर
उपदेशक पर अव्यावहारिक होने का दोष मढ़ने में ही
अपना भला समझते हैं .
मजेदार बात यह है कि
आधी चौपाई ही प्रचलित है
अधिकाँश को तो पूरी चौपाई याद आ ही नहीं पाती

सोमवार, 10 अक्तूबर 2011

‘लिव इन ‘ ना बदलाव ना भटकाव्’- उपसंहार

‘लिव इन' ‘ ना बदलाव ना भटकाव्’- उपसंहार
मेरा स्वयं का भी परम्परागत अथवा प्रेम-विवाह अथवा किसी भी अन्य तरह के विवाह
जिनमें गन्धर्व विवाह भी सम्मिलित है किसी तरह का कोई विरोध नहीं है !
मेरे मत में सर्वाधिक उत्तम आर्यों का सप्तपदी विवाह ही है !
बशर्ते वर-वधु दोनों को अपने अपने सातों वचन याद हों
और वे इनपर चलने तत्पर हों !

वचनवद्ध हों !
किन्तु प्रचलित परम्परागत विवाह धीरे धीरे आधुनिकीकृत होते गए एवं
एवं होते जा रहे हैं !
परिवर्तन का उदहारण कुछ इस तरह है कि
मेरे दादाजी की पीढ़ी वाले समय में
वर - वधु एक दुसरे को ना तो देख पाते थे ना जीवन साथी के मायने समझ पाते थे !
शादियाँ बचपन में हुआ करती थीं !
शौक से माता पिता पुत्रवधू को युवा होने से पूर्व गौना करा भी लेते तो भी
दोनों को आपस में वार्तालाप या तो बचकाना होता था या
सबकी मोजूदगी में शर्मिला सा !
यह लगभग 100 वर्ष पुराना मेरे परिवार का सुना हुआ चलन था !
किन्तु मेरे गाँव वालों के परिवार में मैंने स्वयं अभी ही
मात्र 31 वर्ष पहले यही सब अपनी आँखों से देखा !
जिसमें वर और वधु शारीरिक मिलन हेतु तत्पर होने के
वर्षों पूर्व से ही अपने भावी साथी से विवाहित हो उसे जानते होते थे ,
समझने की उम्र होने पर उनके मन में कोई काल्पनिक स्वप्न संगी ना होकर
उनके अपने जीवन साथी का स्पष्ट व्यक्तित्व होता था !
तब किसी परपुरुष को और काफी हद तक पर स्त्री को भी
स्वप्न में भी ना सोचने वाला कथन सत्य के अधिक निकट था !

मेरे परिवार में यह मेरे पिता की पीढ़ी के विवाह के समय
वर और वधु के युवा होते होते होने विवाह होने और गौने की प्रथा ख़त्म होने के रूप में
लगभग 60 -70 वर्ष पूर्व हो गया था !
तब भी ठीक था जिस समय वर और वधु वरीच्छा की आयु में पंहुचते उनका साथी उनके सामने स्पष्ट होता था!
किन्तु मेरे गाँव में वह 70 वर्ष पीछे चलने का क्रम अभी भी बना हुआ है !
मेरे गाँव वालों के परिवार में अब भी वर वधु की युवावस्था की दहलीज पर पंहुचते-पंहुचते विवाह होना शुरू हुआ है !
मेरे पिता की पीढ़ी तक के शहरी, कस्बाई और गाँव के, आज के भी,
विवाहितों में चारित्रिक पतन, प्रेमविवाह ,सम्मान ह्त्या (आनर किलिंग ), विवाहेत्तर सम्बन्ध, पारिवारिक विघटन , मनमुटाव , दहेज़ , दिखावा और तलाक जैसी सामाजिक बुराइयां यदाकदा अभिजात्य वर्ग तक ही सीमित रहे हैं/ हैं !
किन्तु मेरी पीढ़ी और मेरे बाद की वर्तमान पीढ़ी के आते-आते
ये सभी बुराइयां चरम पर पंहुच चुकी हैं !
( मेरे ) गाँव में नगण्य हैं

किन्तु अन्यत्र
कन्या को जन्मने भी नहीं दिया जा रहा !
क्या समाज में व्याप्त ये सामाजिक बुराइयां जिम्मेदार नहीं हैं ?
कन्या भ्रूण ह्त्या की ?
मेरे समकालीन और वर्तमान यानी लगभग 30 -40 वर्ष के हालिया इतिहास में
परिस्थितियाँ तेजी से इन बुराइयों की ओर बदली हैं !
कारण वयःसंधि की आयु में सपनों के जीवन साथी की मात्र काल्पनिक छवि !
अथवा अपने आसपास उपलब्ध आदर्श व्यक्ति की ओर मन ही मन / मुखर आकर्षण !
ऐसे आकर्षण का पता माता-पिता को लगने से पूर्व ही अथवा लगते ही
अन्यत्र विवाह बंधन में बंधने की विवशता !
किन्तु पूर्वनिर्धारित काल्पनिक जीवनसाथी की छवि यथार्थ से जुड़ने में सदैव बाधक !
परिणाम - मनमुटाव , बिखराव ,विवाहेत्तर सम्बन्ध, अलगाव, हिंसा , ह्त्या और तलाक !
एक मनोवैज्ञानिक सर्वे के अनुसार प्रत्येक युवा व्यक्ति विवाह से पूर्व अवश्य ही
किसी ना किसी के रूप में अपना जीवन साथी संजो चुका होता है !
एक और सर्वे के अनुसार प्रथम प्रेम अविस्मर्णीय तो होता है किन्तु
इसका सर्वश्रेष्ठ होना / सर्वाधिक महत्वपूर्ण होना आवश्यक नहीं !
किन्तु यदि प्रथम प्रेम साथ हो और विशेष त्रुटी रहित भी हो तो
किसी अन्य बीज के अंकुरण की संभावना अशेष ही होती है !
ऊपर मेरे दादाजी और पिताजी के समय के विवाह पद्धतियों का वर्णन कर
पूर्व प्रचलित मिलन से पूर्व किन्तु विवाहोपरांत लिव-इन का भी उदाहरण दिया है ,
और वयःसंधि के समय के जीवन साथी की स्पष्ट प्रथम प्रेम की छवि का भी !
दहेज़ और आडम्बर रहित विवाह व्यवस्था होने के कारण
न्यून क्लेश की परिस्थितियों में विवाह संपन्न कर
जीवन पथ पर अग्रसर होते प्रथामान्कुरित प्रेम युक्त युगल की स्थिति का भी !
आज कहाँ है ऐसे हालात !
किस टाइम मशीन में बैठाकर वर वधु को
प्रथामान्कुरित प्रेम वाली वयः संधि आयु पर वापस ले जाया जा सकता है !
यदि यह संभव नहीं तो जिस तरह भी हो दोनों को एक दुसरे को
पूरे मन से वरण किया जाए महत्पूर्ण यह है,
ना की समाज की हमारी अपनी बनाई हुई पूर्व मान्यताएं
जिन्हें हम लम्बे विरोधों के बाद ही सही
कालान्तर में बदलने विवश होते रहे हैं ,,,,
और आगे भी होते रहेंगे ....!!!!!
जहाँ तक लिव-इन को मान्यता का प्रश्न है तो
विवाह के मजबूत होने का आधार कारण बन सके
भविष्य में जुड़ने की आकांक्षा सहित , यौन संपर्क रहित स्वस्थ सहवास तो स्वागत योग्य !
अन्यथा पूर्वकाल के गन्धर्व विवाह की तरह ही हेय !!!!!
राम की तरह एक पत्नीव्रती पुरुष
और सीता सावित्री कि तरह समर्पित स्त्री
सदैव आदरणीय रहे हैं
और युगों तक रहेंगे !
ना मुझे इस पर कोई संदेह है ,
ना मेरा कोई और सन्देश !
धन्यवाद !
जय हिंद !

रविवार, 9 अक्तूबर 2011

‘लिव इन ‘ ना बदलाव ना भटकाव्’-भाग २

SwaSaSan Welcomes You...
‘लिव इन'  'ना बदलाव ना भटकाव्’-भाग २
आप सबकी असहमति का बहुत बहुत धन्यवाद् !
मैं आलोचक हूँ और स्वस्थ आलोचना का पूरे ह्रदय से स्वागत करता हूँ !
फिर भी कुछ स्पष्टीकरण आवश्यक हैं जो देना मेरा कर्त्तव्य भी है -
मैंने लेख में जगह-जगह " स्वस्थ " साहचर्य (लिव - इन ) लिखा है !
इस स्वस्थ को इस उदहारण से स्पष्ट करना चाहूँगा
मेरी होने वाली पुत्रवधू विगत वर्ष से मेरे परिवार में बेटी की तरह निवास रत है
और अभी भी वे दोनों
 ना तो अंतिम निर्णय तक पंहुचे हैं
 ना ही उनके बीच कोई अनैतिक शारीरिक सम्बन्ध हैं !
 मेरे परिवार को मेरी उस वर्तमान बेटी
और भावी बधुपुत्री से मिले अनुभव इतने सुखद हैं
कि यदि आगे वह किसी अन्य घर की शोभा भी बने
तो भी हम आपस में शर्मिन्दा नहीं होंगे !
 ना ही दुखी !
वो है ही इतनी अच्छी बच्ची !
दूसरी ओर मेरे बहुत निकट विवाह के बंधन को ढोते हुए वे जोड़े भी हैं
जो सामाजिक मान्यताओं के अनुरूप
विवाहोपरांत लिव-इन में तो साथ साथ हैं
किन्तु
विचारों में कहीं दूर किसी और के साथ !
वैसे सभी को जानकारी होगी ही कि आधुनिकतावादी देशों में भी
 लिव-इन ने विवाह का स्थान नहीं लिया है !
विवाह के मार्ग के रूप में ही प्रचलित है लिव-इन वहां भी !
पहले दुसरे अथवा किसी भी क्रम के साथी के साथ वे भी आखिर विवाह ही करते हैं !
उनमें उन्मुक्त यौन संपर्क बहुत पहले से प्रचलित है
 किन्तु
आज भी ब्रिटेन की राज-वधु बनाने हेतु
रक्षित-कौमार्य युवती को ही मान्यता मिली हुई है !
यानी वहां भी कुलीन होने के लिए  सच्चरित्र होना अनिवार्य है !
मेरी स्वयं अनेक युवाओं से यौन उन्मुक्तता पर चर्चा होते आई है !
 जितनी तेजी से पुरुषों में कौमार्य को महत्त्व देना घटा है
उससे कई गुना तेजी से आधुनिक युवतियों में
 कौमार्य के प्रति एक नई सोच जन्मी है !
 (दो-तीन माह के संयम से सब ठीक हो जाता है ) !
वैसे यदि मेरे व्यक्तिगत विचार की बात करूँ तो
 मेरे लिए बलात्कार (भावनात्मक / परिस्थितिजनक) पीड़िता की
शारीरिक शुचिता के स्थान पर आत्मा की शुद्धता पर विचार अधिक उपयुक्त है !
किसी भी तरह के बलात्कार से किसी भी स्त्री/ पुरुष  का तन या मन मैला नहीं होता !
 ना पीड़ित को अपनी आत्मा पर किसी तरह का अपराध बोध समझना चाहिए !
लिव-इन में ठगे गए दुर्भाग्यशाली व्यक्ति भी ऐसे ही
भावनाओं के बहकावे के माध्यम से किये गए लगातार बलात्कार के शिकार व्यक्ति हैं !
युवतियों के साथ-साथ युवक भी हैं इनमें !
 मंच के अन्य ब्लोगरों ने भी अभी तक लिव-इन पर जो लिखा है !
मेरा मत उनसे अधिक भिन्न नहीं है !
हाँ लेकिन रखैल या कीप के लिए पुरुष वर्ग को दोष देना उचित नहीं है !
पुरुष से कहीं बहुत अधिक स्त्री को लिव-इन / रखैल में सामाजिक सुरक्षा मिलती है !
सामान्यतः रखैल का खर्च उसका पुरुष साथी ही उठा रहा होता है !
जो उस पुरुष की सामान्य यौन तुष्टि हेतु स्त्री को किये जा सकने वाले
 तात्कालिक प्रतिकार (नगद/उपहार आदि ) से कहीं बहुत अधिक है !
यह अतिरिक्त खर्च ही उस पुरुष को उस स्त्री को
स्वयं हेतु आरक्षित रखने का अधिकार भी देता है !
साथ ही रखैल स्त्री भी अपने पुरुष साथी पर पत्नी सा अधिकार जता
अन्यत्र भटकने से रोकते देखी जाती है !
मेरे अपने स्वदर्शी कुछेक प्रकरण ऐसे भी हैं जिनमें लिव-इन / रखेला का
 पूरा खर्च स्वयं स्त्री द्वारा वहन करते पाया है !
निश्चय ही दोनों की आवश्यकता की पूर्ती का आपसी समझौता है लिव-इन !  
जब तक सामंजस्य है सब ठीक !
नहीं तो दोनों दूजे की ओर अंगुली उठाते ही हैं !
 किसी रखैल / रखेला को कभी तालों में बंद कर रखते किसी ने नहीं देखा होगा !
फिर भी दुसरे तीसरे जीवन साथी के रूप में लिव-इन वालों में से
 १% से भी कम आजीवन जीवनसाथी रह पाते हैं अन्यथा 
अन्य अधिक उपयुक्त साथी के मिलते ही ऐसे अस्थायी साथ टूट जाते हैं !
विवाह व्यवस्था में मेरा पूरा विशवास है !
किन्तु महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में प्रचलित
भावी वधु का अल्पकालीन ससुराल में परिजनों के बीच ' लिव-इन '
अंतिम कदम उठाने से पूर्व का समझदारी भरा चलन कहूँगा !
दहेज़ और जातिगत प्रथाओं के प्रतिहार हेतु यदि केवल विवाह रहित लिव-इन ही विकल्प बचे
तो दहेज़ और संकीर्ण जातिवाद के मुकावले लिव-इन को मेरा मत है !
विवाह व्यवस्था सर्वोत्तम हो सकती है बशर्ते दहेज़ और जाती को पृथक रखा जाए !

गुरुवार, 6 अक्तूबर 2011

'लिव इन ' ना बदलाव ना भटकाव्'

SwaSaSan Welcomes You...

'लिव इन ' ना बदलाव ना भटकाव्'
[(मूलतः जागरण जंक्शन पर  )
एक अच्छे बिषय को उठाने हेतु धन्यवाद् !
विषय एवं उठाये गए प्रश्न दोनों जटिल हैं .]
.
  लिव इन से पहले विवाह व्यवस्था पर विचार करना जरूरी है,
जिसके कारण लिव इव पर प्रश्न उठाने की आवश्यकता पड़ी!
ज्ञात प्रामाणिक इतिहास ,धार्मिक मान्यताओं और वैज्ञानिक तथ्यों से स्पष्ट है कि
विवाह व्यवस्था का प्रादुर्भाव बाद में हुआ है !
उससे पहले 'बाबा आदम और हब्बा' या 'एडम और ईव' या 'मनु स्मृति ' या किसी भी अन्य नाम वाले
पहले जोड़े के विवाह का कोई उल्लेख कहीं नहीं मिलता !
विज्ञान प्रामाणिक प्राचीनतम धर्म हिन्दुओं के मूल देवताओं में से भी
केवल शिव विवाह का ही प्रसंग वर्णित है !
बाद में वर्णित अवतारों में से भी केवल राम ने ही विवाह की मर्यादाओं को निभाया है !
यानी संक्षेप में विवाह व्यवस्था से पूर्व दीर्घकालिक , अल्पकालिक अथवा क्षणिक लिव इन ही प्रचलित था !
विकास वाद के सिद्धांत को उचित मानें तो
निश्चय ही लिव इन की त्रुटियाँ दूर करने के उद्देश्य के साथ ही
बाद में विकसित विवाह व्यवस्था अधिक अच्छी होनी चाहिए !
किन्तु जिस तरह लिव इन की त्रुटियों में किये गए सुधारों ने विवाह व्यवस्था को जन्मने
और यौन तुष्टि हेतु आदर्श व्यवस्था बनने का अवसर दिया
आगे होने वाले सुधारों और प्रचलनों ने इस आदर्श व्यवस्था में त्रुटियों को जन्म दिया !
विवाह व्यवस्था की आवश्यकता स्त्री को उपभोग की वस्तु से
समाज का अंग बनाने की आवश्यकता पड़ने पर हुई होगी !
श्री कृष्ण के युग तक आते आते स्त्री देवी से दासी की स्थिति में पहुँच चुकी थी !
स्त्री-पुरुष अनुपात जो भी रहा हो पति-पत्नी अनुपात अजीब हो चूका था !
श्रीकृष्ण की १६००८ पत्नियों की तुलना में द्रोपदी ५ पतियों की पत्नी ....!
ऐसी विसंगति के काल में में जनसाधारण में से अनेक पत्नी विहीन ही रहे होंगे !
स्त्रियाँ केवल सबल और संपन्न व्यक्ति के साहचर्य को ही वरीयता देती होंगी ,
बिना यह विचारे कि उसका क्रम/ स्थान कोनसा है !
तब सभी को उचित सहचर्य के उद्देश्य से विधिवत विवाह को मान्यता मिली होगी !
तब स्त्री को व्यक्ति होने का बहन हुआ होगा और व्यक्ति होने का अधिकार मिला होगा !
वैसे तो अभी अभी बीते इतिहास में और कहीं कहीं वर्तमान में भी
राजाओं से लेकर जनसाधारण द्वारा स्त्रियों को 'बेटियों ' के स्थान पर
सुन्दर वस्तु के रूप में दुसरे राजा अथवा व्यावसायी को निहित स्वार्थ ( तथाकथित विवशता )
हेतु सोंपने के अनेकों उदाहरण हैं किन्तु
सभ्य समाज में अधिकतर बेटी को उचित वर से व्याहने का पिता / परिजनों का
उत्साह देखते ही बनता है !
उचित वर मिलने पर पिता / परिजन अपने सामर्थ्यानुसार धूमधाम से
हार्दिक आशीषों के रूप में भर सामर्थ्य उपहारों से सजाकर अपनी बेटियों का विवाह करते रहे हैं !
किन्तु दोनों पक्षों उपहार देने वाले और पाने वाले दुसरे उदाहरणों से होड़ कर अपने लिए भी वैसे ही
उपहारों और धूमधाम की आशा और बाद में शर्तें रखने लगे !
यहाँ आकर विवाह व्यवस्था दूषित हो गई !
हर काल में हर बुराई के विरुद्ध अनेक क्रांतिकारी सामने आते रहे हैं !
ऐसा ही इस बुराई के सन्दर्भ में भी हुआ !
और कई प्रगतिवादी युवक-युवतियों ने एक दुसरे को बिना किसी ताम झाम के
एक दुसरे का जीवन साथी बनाना स्वीकारा !
किन्तु ऐसे विद्रोही युवक-युवती शेष बुराइयों के साथ साथ जातिगत भेदभाव की
बुराई के विरुद्ध भी कदम उठाने लगे !
जिसके परिणाम में समाज में तिरस्कार और मौत की सजा तक मिलने लगी !
जबकि विवाह रहित किसी भी अन्य रिश्ते की आड़ में (बहन-भाई से पवित्र रिश्ते तक ) साहचर्य में
किसी को कोई आपत्ति नहीं है !
दूसरे....
कई आदिवासी कबीलों में घोटुल जैसी प्रथा ....
कई महाराष्ट्रियन जातियों में वधु को विवाह पूर्व ससुराल भ्रमण कराने की प्रथा .....
आदि की ही तरह लिव इन में भी
आजीवन सामाजिक और कानूनी रूप से आसानी से ना तोड़े जा सकने वाले बंधन में बंधकर
सारा जीवन असंतुष्टि में गुजारने से बेहतर है कि एक दूसरे को जान लिया जाए !
यदि उचित लगे तो साथ साथ अन्यथा...
तुझे तुझसा और मुझे मुझसा कोई और मिलने कि दुआ के साथ अलग अलग ....
अंजलि गुप्ता जैसे जिन कटु उदाहरणों को हम देख रहे हैं
वे लिव इन के वास्तविक उद्देश्य से कहीं दूर
अनैतिक सहचर्य की इच्छित स्त्री का
कामोत्ताजना की दशा में पुरुष से लिए वचन को निभाने के दबाव
और असफलता की दशा में हताशापूर्ण उठए कदम का उदाहरण हैं !
इनका लिव इन से कोई सम्बन्ध नहीं है !
मैंने मेरे यौवनकाल से लेकर मेरे बेटे- बेटियों के यौवन काल तक
स्वस्थ लिव इन के सुपरिणाम अधिक देखे हैं !
दुष्परिणाम नगण्य !
इसीलिये मैं स्वस्थ लिव इन को सर्वथा उचित और प्रासंगिक मानता हूँ !
उपरोक्त में ही उठाये गए सभी प्रश्नों के उत्तर भी समाहित हैं !
1. क्या लिव इन संबंध में रहने वाले जोड़े विवाह संबंध में रहने वाले दंपत्ति के समान अधिकार पाने के हकदार हैं?
-नहीं !
२. क्या लिव इन संबंध भारतीय सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध है?
-नहीं !
3.यदि लिव इन संबंध को वैवाहिक संबंध के बराबर अधिकार मिल जाए तो क्या दोनों के बीच अंतर खत्म हो जाएगा?
-हाँ किन्तु ऐसा होना नहीं चाहिए !
४.लिव इन संबंधों को कानूनी वैधता दिए जाने के क्या लाभ है?
- कोई लाभ नहीं ! क्योंकि वयस्क स्त्री-पुरुष को बहला फुसलाकर कुछ भी करवाना असंभव है !
फिर साथ रहने विवश करने जैसा तो कुछ हो ही नहीं सकता !
दो वयस्कों का परीक्षण में साथ रहने का निर्णय साझा है तो
किसी एक का दूसरे को भविष्य में भी साथ देने विवश करना अन्याय ही होगा !
हाँ यदि इस बीच दोनों के संयोग से कोई संतान जन्मति है तो
भारतीय उत्तराधिकार कानूनों का संरक्षण मिलना चाहिए !

सोमवार, 26 सितंबर 2011

मैं और मेरा देश

SwaSaSan Welcomes You...

मैं और मेरा देश 

अक्सर हम हमारे देश और समाज की कुरीतियों, कुशासन  कुप्रबंधन , कुप्रथाओं
और कपट आदि पर खुलकर खुन्नस निकाल रहे होते हैं ! हमारी इस हरकत के हामी
हमसे हमारे कई साथी भी मिल जाते हैं किन्तु ..... कभी खुद अपने आप पर सोच
कर भी देखा जाए !
हमारे देश , समाज, गाँव , शहर, कुल , परिवार और खुद अपनी दुर्दशा के दोषी
स्वयं हम भी कम नहीं निकलेंगे !
उससे भी बढ़कर बिडम्बना यह की हमेशा सुधरने की अपेक्षा दूसरों से , सुधार
की अपेक्षा दूसरों से , क्रान्ति की शुरुआत की अपेक्षा दूसरों से,
आन्दोलन / समर्थन / सहयोग की अपेक्षा भी दूसरों से ही किन्तु उपभोग के
समय हम खुद को सबसे बड़ा अधिकारी मानते हैं !
क्यों ????????????????????????

 

 

सोमवार, 19 सितंबर 2011

नीतीश कुमार , मोदी जी और अमेरिका का हम पर प्रभाव !

नीतीश कुमार , मोदी जी और अमेरिका का हम पर प्रभाव !
किसी अमेरिकी रिपोर्ट में मोदी जी को विकास का पुरोधा कहा गया है !
बस इतना काफी था हम भारत वासियों को ?
सब के सब मोदी जी को ऐसे अगले प्रधान मंत्री के रूप में देखने लगे
जो देश को भी गुजरात की तरह प्रगति पथ पर ले जाएगा !
मैं अमेरिकी एजेंसी और मोदी जी
दोनों की योग्यता पर अविश्वास का कोई कारण नहीं पाता हूँ !
किन्तु उस एजेंसी के उत्तमता घोषित करने के मापदंड उचित नहीं लगे !
क्योंकि , गुजरात आज से नहीं वर्षों पूर्व से ही व्यवसाइयों की
विशेष विचारधारा का गढ़ रहा है !
विशिष्ठ जनों की जन्मभूमि !
जिनमें गांधी जी से युग पुरुष भी थे
और अम्बानी जी से क्रांतिकारी व्यवसायी भी हुए !
गुजराती (मारवाड़ी) व्यवसायी सारे देश ही नहीं सारी दुनियां में
सफल व्यवसायी के रूप में जाने जाते हैं !
ऐसा प्रदेश यदि विकास दर में दुसरे प्रदेशों से आगे है तो
यह भी देखना होगा की बाकी देश में भी विकासदर में बढ़ोतरी जारी है !
यानी परिस्थितियाँ काफी कुछ विकास के अनुकूल निर्मित हुई हैं !
किन्तु भारत में एक ऐसा भी प्रदेश हुआ करता था
जहाँ केवल जंगल राज चलता था !
जी हाँ नीतीश से पहले का बिहार !
नीतीश जी के शासन काल में वहां जंगलराज की तस्वीर बदल कर
विकास की तस्वीर बन रही है ,
वह देखने के मापदंड थे ही नहीं अमेरिकी एजेंसी के पास !
यदि विपरीत परिस्थितियों और अन्य क्रियाकलापों को ध्यान में रखते हुए
ईमानदारी से विचार करें तो मोदी जी से पहले
सर्वप्रथम नीतीश कुमार जी का नाम लिया जाना चाहिए ,
फिर संशाधन विहीन मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज जी का
तब मोदी जी का नंबर आता है !
यह एक सुखद संयोग है की तीनों भाजपा के हैं
या भाजपा के सहयोग से पद पर हैं !

बुधवार, 14 सितंबर 2011

हिंदी के दुश्मन खुद हिंदी भाषी ! -1

SwaSaSan Welcomes You...
1- (कैसे )
 हिंदी  दिवस पर...
हिंदी की  दुर्दशा के  दोषी  हम  हिंदी  भाषी स्वयं  ही  हैं  !
जी  हाँ ! मैं  मेरे  सिद्धांतों  के  विरुद्ध  आज  इस  अवसर  पर  नकारात्मक  कहने  को  विवश  इसीलिये  हूँ  की  आज  के  दिन  शायद  हिंदी  में  लिखा  हुआ  पढ़ने  में  हिंदी  भाषियों  को  रूचि  हो !
 ये  मेरा  फलसफा  नहीं  कटु  अनुभव  बोल  रहा  है !
आपको  प्रसंगवश  बताना  आवश्यक  है  की  मेरे  लिखे  लेख  ' मेरा  राज  देश  पर  तो  देश  का  दुनियां  पर  ' के  लिए  मुझे  ' राष्ट्रीय  रत्तन  अवार्ड -2009 ' हेतु  ' सिटिज़न्स   इंटीग्रेशन एंड  पास  सोसाइटी  इंटर्नेशनल ' द्वारा  आमांकित  किया  गया  था . ( इस  संस्था  का  मुख्यालय  USA में  है  और  लेख  के  अंश  SwaSaSan पर  ) . मैं  अर्थाभाव -वश  समय  पर  ना  तो  फोटोग्राफ  आदि  जानकारी  भेज  सका  ना  समारोह  में  सम्मिलित  होने  दिल्ली  तक  जा सका ! किन्तु  इस  नामांकन  से    प्रेरित  हो  मेरा  ब्लॉग  स्वशासन  और  बाद  में  वेबसाइट  ( हिंदी  ) शुरू  की  ! पिछले   16 ऑक्ट  2010 से  आज  तक  मेरे  ब्लॉग  पर  कुल  लगभग  980 क्लिक  हुए  हैं  ! मुझे  मेरे  ब्लॉग  के इन आंकड़ों  के  विश्लेषण  से  आश्चर्य  दुःख  और  घोर  निराशा  होती  है  ! इसीलिये  नहीं  की  गिनती में कम  हैं  वरन  इसलिए  कि  इनमें  से  आधे  से  अधिक  विदेशों  से  हैं ! मुझे  दुःख  है  कि  कनाडा  और USA की  एक  से  अधिक  वेबसाइट  मेरा  प्रचार  कर  प्रोत्साहन का प्रयास  करती  हैं  ! सबसे  ज्यादह  USA में  मुझे  पढ़ा  जाता  है  !
चलिए  बात  यहीं  तक  होती  तो  भी  ठीक था  किन्तु  आगे  जो  लिखने  जा  रहा  हूँ  वह  या  तो  मेरा  दुर्भाग्य  है  या  हमारे  कुंठाग्रस्त  समाज  की  विकृत  बिडम्बना !
मई  मार्केटिंग  में  राष्ट्रीय  स्तर  पर  सम्मानित  किया  जा  चूका  हूँ  तो  निश्चय  ही  मेरा  परिचय  क्षेत्र  विस्तृत  होगा  ही ! मेरे  परिचय  क्षेत्र  के  लगभग  हर  व्यक्ति  से  ( जो  हिंदी  और  नेट   की  समझ  रखते  हों  )
ब्लॉग  पर  जाकर  पड़ने और  उनकी  समस्याओं  के समाधान पाने  का विश्वास दिलाया  किन्तु ....  करीब  3-3.5 हजार  लोंगों  में  से  किसी  से  भी  या  तो  ब्लॉग  पर  जाना  नहीं  हो  पाया  या  आधे  से  अधिक  ने  हिंदी  ठीक  से  समझ  ना  आने  की  विवशता जताई !
मुझे  लगा  शायद  हमारे  देश  में  इन्टरनेट  के  प्रति  जागरूकता  की   कमी  है  इसीलिये  लोगों  की  रूचि  कम  है सोचकर  मैने  मेरे  बहु-उपयोगी  ढाई   पेज  के  लेख  ' सुख  के  साधन  ' की  50 प्रतियाँ  छापकर  मेरे  कार्यालयीन  सहयोगियों  और  परिचितों  में  से  केवल  उन  जरूरतमंदों  को  दी  जिन्हें  इसकी  पढ़ने  की  सख्त  जरूरत  मुझे  महसूस  हुई  ! पिछले  6 माह  में  से  केवल  2 व्यक्तियों  ने  ही  पढ़ना  स्वीकार  किया  ( कहा हाँ  यही  सच  है  सुख  हमारे  अपने  हाथ  में  है हमारे गुरूजी भी यही कहते हैं ) शेष  48 को  ढाई  पेज  पढ़ने  का  समय  नहीं  मिल  पाया ! और इनमें वे लोग भी शामिल हैं
जो मार्गदर्शन लेने ही मेरे पास आये थे ! 
अधिकांश लोग अपने बच्चों की समस्या मेरे सामने रखते हुए सलाह के रूप में ( मुफ्त )ऑनलाइन ब्लॉग बच्चे को पढ़वाने की सलाह शुरू से नकारते हुए बहुत इतराते हुए कहते हैं -
  " हिंदी में है ? हमारे बच्चे तो हिंदी के नाम से ही चिड जाते हैं !"
" शुरू से इंग्लिश मीडियम में ही पढ़े हैं ना ! "
" अब हिन्दी कौन पढ़ता है ? "
" बस अ आ इ ई तक ही सीख पाए फिर जरुरत ही नहीं पड़ी ! "
" जनरल हिंदी में पास होने लायक आ जाएँ "
" और कोई उपाय बताइए ... जो खर्च लगेगा हम कर लेंगे !"
यहीं से मेरा दिमाग घूम जाता है 
[और मैं उनसे नम्रता से चले जाने को कह देता हूँ ! ]  
   मेरे कार्यालयीन नए सहयोगी उनहत्तर , उन्सठ, उनचास 
में भ्रमित हों तो चल जाए किन्तु पेंतालिस की अंग्रेजी में 
गिनती फार्टी फाइव भी उन्हें बताना पड़ती है !
तब अपने भारतीय
[ होते हुए जूता उतारकर ना मार पाने की मजबूरी के कारण  ] होने पर सचमुच शर्म आती है !!!
  [ मेरा तंत्र के विरुद्ध आक्रोश और अकेलापन 
मुझे तीन तीन बार सड़कों पर ला चूका है !
किन्तु पछतावा नहीं है मुझे !
ईश्वर , समुन्दर की लहरों सा होंसला और ताकत बनाये रखे बस !]
मेरे आक्रोश पर भी आक्रोश आता है मुझे 
क्योंकि जिनपर मेरा गुस्सा है,
क्या वे ही लोग जिम्मेदार हैं इस स्थिति के लिए ???
सोचता हूँ तो केवल 10 % दोष उनका पाता हूँ !
शेष 90 % तो वही तंत्र जिम्मेदार है !!!!!!!
(मित्रो; क्षमा करें ! कुछ आकस्मिक विवशता आ गई है अतः शेष अगले भाग में , अगले सप्ताह तक !) 

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