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देश की प्रगति है क्या?
जब पहली बार लेख लिखा गया....
तब हालात ऐसे ही थे....
मेरी अपनी पत्रिका के प्रधान संपादक भी इसे छापने के पक्ष में नहीं थे )
बिकना ही नियति है सबकी
मेरा मोल लगाया गया कई बार ...
मैंने भी तय कर ली मेरी कीमत
तुम्हारा भी मोलभाव होता होगा ..
तुमने भी लगाये होंगे दाम अपने ....
पता नहीं कितना बिके अब तक तुम..
मुझे खरीदार मिला नहीं ...
मैंने पाल लिया है भ्रम मन में...
कि मैं अलग हूँ सबसे....
अनमोल हूँ मैं..... .
प्रार्थना है
हे मेरे ईश्वर !
मेरा मोल ना लग पाए कभी
बनाये रखना मुझे अनमोल !
जरा सोचें.... क्या कारण होगा कि
हमारा देश आज़ादी के इतने सालों बाद भी...
हमारा अपना सा नहीं हो सका !
हमारा देश आज़ादी के इतने सालों बाद भी...
हमारा अपना सा नहीं हो सका !
प्रगति तो हुई किन्तु क्या पर्याप्त है इतनी प्रगति ?
क्यों हम वह नहीं पा सके जिसके हम अधिकारी थे ?
कारण हमारी अंग्रेजी शासन काल से जारी
शासन को जनविरोधी समझने की मानसिकता
शासन को जनविरोधी समझने की मानसिकता
और इस जनविरोधी प्रशासन के विरुद्ध
कुछ ना कर पाने की असमर्थता का स्वीकार !
कुछ ना कर पाने की असमर्थता का स्वीकार !
शायद हमें स्वयं की सामर्थ्य का...
ना तो ज्ञान है...
ना ही अपनी सामर्थ्य पर विशवास !
ना तो ज्ञान है...
ना ही अपनी सामर्थ्य पर विशवास !
इतिहास गवाह है कि हमारी आज़ादी
और जापान की द्वतीय विश्वयुद्ध के बाद की तबाही
के बाद उठ खड़े होने की कोशिश
और जापान की द्वतीय विश्वयुद्ध के बाद की तबाही
के बाद उठ खड़े होने की कोशिश
लगभग एक ही समय कि घटनाएँ हैं
किन्तु आज जापान हमसे २००- ३०० बर्ष आगे पंहुच चूका है .
सबसे पहले तो अधिकांश लोग यह जानते ही नहीं कि....आखिर क्यों ?
देश की प्रगति है क्या?
देश की प्रगति देखें या हमारी अपनी ?
वास्तव में किसी भी देश की प्रगति
उसके नागरिकों की प्रगति का ही दूसरा नाम है .
उसके नागरिकों की प्रगति का ही दूसरा नाम है .
प्रत्येक देश रूपी इमारत की
इकाई ईंट उस देश का नागरिक ही होता है ,
देश (या भारत देश) का अलग से कोई अस्तित्व है ही नहीं.
यदि देश केवल भोगोलिक सीमाओं से घिरा क्षेत्र ही होता
तो हर देश आज भी उतना ही अविकसित होता जितना हम आदिम युग में थे .
आज यदि दुसरे देश हमसे आगे हैं
तो उन देशों के नागरिक अपना और अपने देश का हित अलग अलग नहीं सोचते / समझते .
आपसे जब देश की प्रगति में सहयोग की बात की जाती है
तो आपसे केवल
अपने हिस्से की प्रगति करने
और दुसरे की प्रगति में
बाधक ना बनने की आशा की जाती है .
लेकिन आपको अपनी प्रगति में खुद अपनी मदद करने के बजाय दुसरे
की प्रगति में बाधक बनने में अधिक रूचि होती है
जिसके लिए आपको अपना ध्यान दो दिशाओं में देना होता है और दोनों ही
काम ठीक तरह से नहीं हो पाते .
मजे की बात तो यह भी है कि
हमारे सामने हमारी संपत्ति को कोई नुकसान पंहुचाये
तो हम लड़ने मरने को तैयार रहते हैं
किन्तु हमारे ही सामने उधमी बच्चे भी
सार्वजनिक संपत्ति में तोड़फोड़ कर रहे होते हैं तो हम चुप रहते हैं
क्योंकि हमें मालूम ही नहीं होता कि
छोटी छोटी चीजों को खरीदते समय हमारे द्वारा चुकाए गए टैक्स जैसी राशी
यानी हमारी पूंजी से ही ये सार्वजनिक सुविधाएं स्थापित हुई होती हैं.
दूसरी ओर
जापानी अपनी राष्ट्रीयता की भावना के लिए जाने जाते हैं ,
इसीलिये भ्रष्टाचार में नकारात्मक मेरिट में हैं .
और हम ..?
हममें से अधिकांश इस तरह के टापिक पढ़ते हुए ,
अपनी ही मातृ भूमि को गाली देने से भी गुरेज नहीं करते !!!
यदि इस टापिक का शीर्षक यह नहीं होता तो 'देश' जैसा बिषय देख शायद १०%
लोग भी इसे पढ़ना उचित नहीं समझते .(क्षमा कीजिये 22 बर्ष पूर्व के शब्द हैं ...
जब पहली बार लेख लिखा गया....
तब हालात ऐसे ही थे....
मेरी अपनी पत्रिका के प्रधान संपादक भी इसे छापने के पक्ष में नहीं थे )
जहाँ तक भ्रष्टाचार का प्रश्न है तो नीचे लिखी लाइनें देखिये
( जो मेरे मनोबल को अभी तक बनाए रखने के लिए, मेरे सन्दर्भ में सटीक हैं
किन्तु हर कोई ऐसा ही दिखावा करता हैं )
अनमोल(?) मानव
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बिकाऊ है हर कोई यहाँ
बिकना ही नियति है सबकी
मेरा मोल लगाया गया कई बार ...
मैंने भी तय कर ली मेरी कीमत
तुम्हारा भी मोलभाव होता होगा ..
तुमने भी लगाये होंगे दाम अपने ....
पता नहीं कितना बिके अब तक तुम..
मुझे खरीदार मिला नहीं ...
मैंने पाल लिया है भ्रम मन में...
कि मैं अलग हूँ सबसे....
अनमोल हूँ मैं..... .
प्रार्थना है
हे मेरे ईश्वर !
मेरा मोल ना लग पाए कभी
बनाये रखना मुझे अनमोल !
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मैं कोई मसीहा या अवतार या योगी या पंहुचा हुआ साधू-संत नहीं हूँ ,
मैं भी आप में से एक आम भारतीय ही हूँ !
बस मैंने मुझे स्वयं की नजरों में गिरने नहीं दिया है !
मैं अनारक्षित वर्ग से हूँ !
(मुझे विस्तार से जानने
" क्या हक नहीं है मुझे उपदेश देने का "
पढ़ सकते हैं )
(मुझे विस्तार से जानने
" क्या हक नहीं है मुझे उपदेश देने का "
पढ़ सकते हैं )
वर्तमान आरक्षण व्यवस्था के रहते हुए भी
यह मानने तैयार नहीं की रोजगार के अवसर अनुपलब्ध हैं !
मेरे पिता को, मुझे और मेरे बेटों को केवल अपनी योग्यता के दम पर
[ किन्तु योग्यता के अनुरूप ही ]
एक से अधिक रोजगार के आमंत्रण उपलब्ध रहे हैं !
समस्या अपनी योग्यता से अधिक पाने के प्रयास में
दुसरे के हिस्से को येनकेन प्रकारेण हड़पने के प्रयास से ही जन्मती है !
यदि आवश्यकता अधिक पाने की है तो
अपनी योग्यता का विकास आवश्यक है !
अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता के साथ साथ
अपने कर्तव्यों का ईमानदार निर्वाह भी आवश्यक है !
[अगले अंकों में 'क्या है हमारे हाथ में ' ]
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