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शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

अभागा शिल्पकार

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अभागा शिल्पकार

मैं

एक शिल्पकार

वर्षों से कर रहा हूँ

सिलाओं पर शिल्पकारी

कहते हैं लोग

मेरे शिल्प में जादू है

मेरे शिल्प से निखर

स्वरुप पाते हैं पत्थर

बेडौल पत्थर

मेरा स्पर्श पाकर

जीवंत हो उठते हैं

मूक होते हैं

मगर

मुझसे स्वर पाकर

पूछते हैं मुझी से

मैंने क्यों छुआ उन्हें ?

क्यों दिया स्वरुप ?

क्यों स्वर देकर किया जीवंत ?

क्यों सौंपा दिया है उन्हें

निर्दयी समाज के हाथों ?

क्यों छीना है उनसे

उनका 'अलौकिक आनंद ' ?

उनके इन प्रश्नों से

हो जाता हूँ मैं

निरुत्तर

मौन

शायद मूक

निर्जीव सा

पत्थर होता जा रहा हूँ मैं

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जो था कभी प्रसिद्द

अभागा शिल्पकार

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