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कूलर ए सी का आनंद लेते हुए
भूल चुके हैं हम
कमरे की खिड़की से आती
वो मीठी बयार
रूम स्प्रे की गंध भरे नथुनों में
भूल चुके हैं
आँगन की बगिया से उठती
वो भीनी -भीनी गंध
बस स्टाप के शेड तले
ताकते एक दुसरे की सूरत
भुला बैठे हैं हम
वो बूढ़े बरगद की
शीतल छाँव
पानी पाउच ने भुलाया
पनिहारिन से मनुहारकर
बुझाना अपनी प्यास
कृत्रिमता की दौड़ में
हम इतने कृत्रिम हुए जा रहे हैं
कि
ईंट गारे से बने मकान को
घर कहे जा रहे हैं
इसीलिये घर नहीं बस पा रहे हैं
एक ही चारदीवारी में बंद परिजन
एक दूजे को
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